Sunday, 22 September 2013

KASHMAKASH

kashmakash

सांझ ढले एक दिन मैंने,
 दूर कही सागर में एक नन्ही सी कश्ती को देखा ,
जूझ रही थी लहरों से,
 शायद भटक गयी राह कही,
 लहरों में रहने वाली कश्ती , 
लहरों से ही थी डरी हुई,
 जिस सागर के अंचल में ,
खुद को महफूज़ वो पाती थी,
 वही आज डगमग होती, 
उसके जीवन की बाती थी,
 साँझ ढले एक दिन मैंने,
 दूर कही सागर में एक नन्ही सी कश्ती को देखा,
 कुछ दिन पहले ये दृश्य नहीं था,
 कुछ दिन पहले ये कश्ती,
भी खेल रही थी सागर में ,
 और सागर ने भी ख़ुशी ख़ुशी,
लिया उसे था आँचल में,
 फिर आज वही सागर की क्यू,
 बना काल का द्वार,
 क्यों मझधार में डूब रही,
 कश्ती के जीवन की पतवार,
 जीवन का है सत्य यही, 
हम सब कश्ती के है स्वरुप,
 पल में खुशियों की छाया है,
 अगले ही पल गम की धूप,
 अनभिज्ञ नहीं है मानव मन,
 जीवन मृत्यु के अटल सत्य से,
 फिर भी न जाने क्यों ,
रखता है जीने की प्यास,
 मृत्यु एक अटल सत्य है ,
 फिर क्यों है जीवन से आस। 
nimiisha  

Tuesday, 9 July 2013

vapsi


वापसी

ये कोहरे की खुशबू,
कुछ अपनी सी लगती है,
ये फूलो की भीनी महक,
ये ओस की नन्ही बूँदे,
ये ठंडी सुबह की सिहरन,
लगता है लौट आया बचपन,
जिस आँगन में चलना सीखा,
उस आँगन की सोंधी खुशबू,
जिस मिटटी में खेल बढे हम,
उस मिटटी का अपनापन,
सावन में जिस पर झूले डाले,
वही नीम की ऊची डालें,
जहां बैठ कर देखे सपने,
वो छज्जे का एक छोर,
है कानो में गूंज रहा,
बचपन का वो अल्हड़ शोर,
आज फिर लौटी हूँ वहा,
जहा गुज़ारा था हर सावन,
इन आँखों ने आज है देखा,
फिर वही दृश्य मनभावन।
-nimiisha 

chaahat

चाहत 
जब चाह कर भी तुमको,
 ख्वाबो को हटाना  मुमकिन न हो,
पलकों को बंद करना ही,
 भूल जाना बेहतर होगा,
तन्हाई में भी साथ चलने,
 जब लगोगे तुम मेरी,
भीड़ में खुद को गुमाना,
 तब कही बेहतर होगा,
दर्द में जब आँख से,
 आंसू बनकर तुम गिरो,
ग़म को सहकर मुस्कुराना,
 तब कही बेहतर होगा,
ख्वाहिशो में तुमको पाना,
 लाज़मी हो जब कभी,
दिल में ख्वाहिश को दबाना,
 तब कही बेहतर होगा,
कशमकश हो गर तुम्हे,
 मेरे किसी भी लफ्ज़ से,
अलफ़ाज़ मेरे मेरा खुद से ही,
 मिटाना बेहतर होगा,
तकदीर में मेरी नहीं थे तुम,
 कभी ये सोचना,
समझा के दिल को युही,
 बहलाना कही बेहतर होगा।
-nimiisha 

Thursday, 4 July 2013

vishraam

विश्राम 
आज खुद के एक अभिन्न अंग को,
 खुद से जुदा किया है मैंने,
 आज अपनी लेखनी को,
 थोडा विश्राम दिया है मैंने,
 भाव है कुछ ऐसे,
 जिन्हें शब्दों में कहना मुश्किल है,
 और दर्द कुछ ऐसा,
 जिसको चुप हो सहना मुश्किल है,
 पर जिस दिन अस्तित्व पर अपने,
 प्रश्न चिन्ह नहीं सह पाऊँगी,
 उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
 परिभाषा क्या है रिश्तो की?
 यह बंधन कैसे होते है?
 जिस दिन सवालों से खुद को,
 एक बार घिरा फिर पाउंगी,
 उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
है एक चुनौती जग को सारे,
कर ले जितने हो सके वार,
हर जख्म चुप हो सह जाउंगी,
पर जिस दिन अपने आंसुओ से खुद के,
जख्म नहीं धो पाऊँगी,
उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
मेरी कलम ही गाएगी उस दिन,
मेरी पीड़ा का हर गीत,
मुझको याद करोगे तो,
आंखें कुछ नम हो जाएँगी,
ग्लानी के बोझ से ये ये पलके तुम्हारी भी,
कुछ बोझल हो जाएँगी,
हसी मेरी सुनने को उस दिन,
कान तुम्हारे तरसेंगे,
नैनो से रिमझिम रिमझिम,
सावन से अनसु बरसेंगे,
नहीं रहूंगी उस दिन मैं ,
बस यादें कुछ दे जाउंगी,
हर पंक्ति कुछ बोलेगी हर गीत रचेगा तान नयी,
प्रलोभन की इस दुनिया में ,
रिश्ते नाते सब झूटे है,
इन झूटे नाटो से परे,
उस परम सत्य को पाऊँगी,
जिस दिन इन रिश्तो को मैं,
अलविदा कह चुप हो जाउंगी,
एक आखिरी बार अब,
उस दिन ही कलम उठाऊंगी।
- nimiisha  

Tuesday, 2 July 2013

ehsaas


एहसास 


जीवन का हर एक क्षण,
 फूलो सा कोमल लगता है, 
ये सारा संसार ही जैसे,
 एक उपवन सा लगता है,
हम आज तलक बैठे रहे,
  आँखे मूँद जिस एहसास से,
क्यों आज वही एहसास दिल में,
 घर करता सा लगता है, 
लक्षय साध कर अर्जुन सा,
 जीवन में बढ़ते थे आगे, 
फिर ये मन क्यों आज लक्ष्य से,
 कुछ भटका सा लगता है, 
मस्तिष्क को ढाल बनाकर,
 बैठे थे एहसासों की अपने, 
किन्तु विचारों पर भी अब,
 शत्रु का घेरा सा लगता है, 
बहुत लड़े पर विफल हुए,
 एहसासों से विजय न पायी, 
तर्क वितर्क के शस्त्र तजे जब,
 जीत तभी दी दिखलाई, 
वो आंखें जिनसे गहरी,
 ना सागर ना नदियाँ पायी, 
आवाज सुनी तो फिर मधुरम,
 कोयल की तानें बिसराई, 
मुस्कान है वो जिसके सम्मुख,
 फीका हर एक सवेरा लगता है, 
चहु और अब तो जैसे,
 खुशियों का बसेरा लगता है। 


-nimiisha  

andhiyaara

        अंधियारा 


दिन ख़त्म हो रात आयी,
 तारो की छाव  साथ लायी ,
चाँद की शीतलता भी,
 सूरज की तपन  लगती है,
अँधियारा है बाहर और,
 अंधियारा कुछ खयालो में,
एक अनजाना सा खौफ़ आज ,
 जेहेन में घर करता नज़र आता है,
विचित्र सा एक डर,
 मन को आज डराता है,
डर अपनों को खोने का,
डर तनहा होने का,
डर यादो के धुंधलाने का,
डर वादों के तोड़े जाने का,
सहमे हुए है ख्वाब ,
ख्वाहिशे  ख़त्म हो चली ,
अपराधी खुद को पाया है,
ग्लानी में खुद को जलाया है,
आंसुओ से भीग है दामन,
अंधियारों में डूबा है मन,
आज कटघरे में वो रिश्ते है,
जो कभी जीवन की थे पहचान,
सही गलत के पैमाने  पर तुलता,
यादो की रेत  का हर एक निशान ,
ये रात तो ख़त्म होगी,
एक सुबह फिर से आएगी,
पर मेरे जीवन का अंधियारा,
क्या कभी मिटा ये पाएगी ?



-nimiisha