kashmakash
सांझ ढले एक दिन मैंने,
दूर कही सागर में एक नन्ही सी कश्ती को देखा ,
जूझ रही थी लहरों से,
शायद भटक गयी राह कही,
लहरों में रहने वाली कश्ती ,
लहरों से ही थी डरी हुई,
जिस सागर के अंचल में ,
खुद को महफूज़ वो पाती थी,
वही आज डगमग होती,
उसके जीवन की बाती थी,
साँझ ढले एक दिन मैंने,
दूर कही सागर में एक नन्ही सी कश्ती को देखा,
कुछ दिन पहले ये दृश्य नहीं था,
कुछ दिन पहले ये कश्ती,
भी खेल रही थी सागर में ,
और सागर ने भी ख़ुशी ख़ुशी,
लिया उसे था आँचल में,
फिर आज वही सागर की क्यू,
बना काल का द्वार,
क्यों मझधार में डूब रही,
कश्ती के जीवन की पतवार,
जीवन का है सत्य यही,
हम सब कश्ती के है स्वरुप,
पल में खुशियों की छाया है,
अगले ही पल गम की धूप,
अनभिज्ञ नहीं है मानव मन,
जीवन मृत्यु के अटल सत्य से,
फिर भी न जाने क्यों ,
रखता है जीने की प्यास,
मृत्यु एक अटल सत्य है ,
फिर क्यों है जीवन से आस।
nimiisha
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