विश्राम
आज खुद के एक अभिन्न अंग को,
खुद से जुदा किया है मैंने,
आज अपनी लेखनी को,
थोडा विश्राम दिया है मैंने,
भाव है कुछ ऐसे,
जिन्हें शब्दों में कहना मुश्किल है,
और दर्द कुछ ऐसा,
जिसको चुप हो सहना मुश्किल है,
पर जिस दिन अस्तित्व पर अपने,
प्रश्न चिन्ह नहीं सह पाऊँगी,
उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
परिभाषा क्या है रिश्तो की?
यह बंधन कैसे होते है?
जिस दिन सवालों से खुद को,
एक बार घिरा फिर पाउंगी,
उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
है एक चुनौती जग को सारे,
कर ले जितने हो सके वार,
हर जख्म चुप हो सह जाउंगी,
पर जिस दिन अपने आंसुओ से खुद के,
जख्म नहीं धो पाऊँगी,
उस दिन फिर कलम उठाऊंगी।
मेरी कलम ही गाएगी उस दिन,
मेरी पीड़ा का हर गीत,
मुझको याद करोगे तो,
आंखें कुछ नम हो जाएँगी,
ग्लानी के बोझ से ये ये पलके तुम्हारी भी,
कुछ बोझल हो जाएँगी,
हसी मेरी सुनने को उस दिन,
कान तुम्हारे तरसेंगे,
नैनो से रिमझिम रिमझिम,
सावन से अनसु बरसेंगे,
नहीं रहूंगी उस दिन मैं ,
बस यादें कुछ दे जाउंगी,
हर पंक्ति कुछ बोलेगी हर गीत रचेगा तान नयी,
प्रलोभन की इस दुनिया में ,
रिश्ते नाते सब झूटे है,
इन झूटे नाटो से परे,
उस परम सत्य को पाऊँगी,
जिस दिन इन रिश्तो को मैं,
अलविदा कह चुप हो जाउंगी,
एक आखिरी बार अब,
उस दिन ही कलम उठाऊंगी।
- nimiisha