Wednesday 9 May 2012

bhor

भोर 

खिड़की से  आज सुबह तो,
होठो पर मुस्कान खिली,
ओस से भीगी पत्तियों से देख,
रवि की किरने है आन  मिली,
नर्म  घास  पर  नन्ही बूंदे,
सागर में मोती हो जैसे,
चिडियों की चु -चु  घोल  रही,
कानो में अमृत हो ज़ेसे ,
उन  गुलाब की पंखुड़ियों पर,
मंडराते भवरे की  गुनगुन,
बोर आम के पदों पर,
और उसपर कोयल  मधुरं स्वर ,
फूलों की खुशबू से महकी,
थी मेरे आँगन की क्यारी,
तितली के अनूठे रंगों से,
मिली थी उसको  शोभा न्यारी,
हो प्रफ्फुल्लित नाच  उठा था,
मेरा मन एक  बालक  सम, 
भोर के रूप में मानो,
स्वर्ग  उतर आया हो जैसे,
आज  मेरे  घर के आंगन।
-nimiisha 

Tuesday 3 April 2012

ankahi


अनकही

कुछ तो कह दो आज,
 के मन मेरा कुछ उदास है.
न जाने क्या है ये,
 शायद कुछ पाने की आस है.
जेहें में जो आज उठी,
 कुछ तूफानी लहरें है.
खुलने लगे मुखौटे जिनके,
 कुछ जाने पहचाने चेहरे है.
रातो का ये सन्नाटा,
कैसी ये चुभन दे जाता है.
है प्रश्न कई होठो पर लेकिन,
 उत्तर नहीं मिल पाता है.
क्यों मन के सागर में ये,
 विचारों का सैलाब है आया.
क्यों हस्ता है मुझपर ही, 
दूर खड़ा हो मेरा साया.
क्यों कही किसी कोने में दुबकी,
 दरी सहमी सी मेरी मुस्कान.
क्यों आँखों से झलक रहा है, 
अश्रु का सागर अविराम.

-nimiisha 

Friday 30 March 2012

SOMETIMES

Sometimes we laugh aloud, but deep inside is no smile
Sometimes we dance along, but joy is far away a mile.
Sometimes we share thoughts with friends, but we know we can trust none
We want to spend moments with them, but they just leave one by one.
Sometimes heart is filled with fear, the fear to lose someone dear.
Sometimes we feel we know each other, but then when you weep the other doesn't bother
Sometimes inspite of being sad, we laugh for someone's sake.
But then when we need them around, they are not there even by mistake.
Is this what they call life?
Is this what is friendship?
Then surely life isn't worth it
there is no true relationship............ 

Saturday 17 March 2012

dawandh

ध्वंध 

समझ ने छोड़ दामन मस्तिष्क का,
ह्रदय का आँचल थाम लिया है,
सत्य से आंखें मूंद आज,
सपने को सच्चा मान लिया है,
अनभिज्ञ नहीं है सच से लेकिन,
जाने क्यों एक आशा है,
क्यों मन विचलित होता है,
क्यों इसमें एक अभिलाषा है,
एक द्वंद्ध विचारों में हुआ,
 मन और मस्तिष्क उतरे थे रण में,
चंचल मन कहता था हर पल,
 जीत मेरी ही होगी अंत में,
थे विचार मस्तिष्क के प्रबल,
 पर कोमल मन से जीत ना पाया,
तर वितर्क धराशाही हुए,
जो भावो ने बाण चलाया,
साक्ष्य सभी, सारे प्रमाण,
 हो जीर्ण शीर्ण बैठे भूमि पर,
प्रीत की डोर से रिश्तो ने,
 कासी लगाम आज थी इनपर,
हुआ अंत इस द्वंद्ध का जब,
 तो मन के सर था विजय मुकुट,
हो प्रसन्न चित्त ने नृत्य किया,
 और उल्हास ने बिखरे कुसुम.
-nimiisha