Saturday, 17 March 2012

dawandh

ध्वंध 

समझ ने छोड़ दामन मस्तिष्क का,
ह्रदय का आँचल थाम लिया है,
सत्य से आंखें मूंद आज,
सपने को सच्चा मान लिया है,
अनभिज्ञ नहीं है सच से लेकिन,
जाने क्यों एक आशा है,
क्यों मन विचलित होता है,
क्यों इसमें एक अभिलाषा है,
एक द्वंद्ध विचारों में हुआ,
 मन और मस्तिष्क उतरे थे रण में,
चंचल मन कहता था हर पल,
 जीत मेरी ही होगी अंत में,
थे विचार मस्तिष्क के प्रबल,
 पर कोमल मन से जीत ना पाया,
तर वितर्क धराशाही हुए,
जो भावो ने बाण चलाया,
साक्ष्य सभी, सारे प्रमाण,
 हो जीर्ण शीर्ण बैठे भूमि पर,
प्रीत की डोर से रिश्तो ने,
 कासी लगाम आज थी इनपर,
हुआ अंत इस द्वंद्ध का जब,
 तो मन के सर था विजय मुकुट,
हो प्रसन्न चित्त ने नृत्य किया,
 और उल्हास ने बिखरे कुसुम.
-nimiisha 

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